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“जाति और जातिवाद का जन्म”
अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को बेदाग दिखाने के चक्कर मे किस तरह जातिवाद की राजनीति को ढाल बनाया जा रहा है, यह काफ़ी हद तक समझा मे आ गया, ! वास्तविक रूप से देखें तो लाख प्रयास के बावजूद अभी तक समाज के जातिगत विखंडन का आधार नही मिल पाया है,…मेरी व्यक्तिगत राय मे हमारे समाज की “जातिवादी व्यवस्था” काफ़ी हद तक कर्म पर आधारित व्यवस्था हैं! प्राचीन समय मे जानवरों की तरह रहने वाले इंसान के अंदर थोड़ी जागृति आई, वह समूह मे रहने लगा ! जब समूह मे रहने लगा तो उसने एक ‘कार्ययोजना’ बनाई, जिसके तहत ऐसी व्यवस्था की गई की सब लोग मिलकर एक दूसरे की आवश्यकता को पूरा कर सकें, ! सबको अलग-अलग काम दे दिए गये, साथ ही यह भी तय कर दिया गया की, जिसको जो काम दिया गया है, वही काम उसकी आने वाली पीढ़िया भी करेंगी, जिससे आवश्यकता और उपलब्धता मे संतुलन बना रहेगा ! यहाँ ध्यान देने वाली बात है की यह सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़िमेदारियों की बात थी, समय गुजरने के साथ लोग अपने-अपने कामों मे औरों से बेहतर होते चले गये, ..परिवारिक कामों को बच्चे भी करने मे बचपन से अभ्यस्त हो जाते हैं इस तरह बच्चे भी ज़िमेदारी को निभाते चले गये ! यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है की यह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बेहतर कार्ययोजना को अमलीजामा पहनाने के प्रयास मे ज़िमेदारीओं को निभाने की बात थी, अन्यथा आरम्भ मे सभी लोग सभी कामों को करने मे पूरी तरह सक्षम थे, और आज भी सक्षम है! आगे चलकर अलग-अलग काम करने वालों के सामूहिक परिचय के लिए जाति-सूचक शब्दों का प्रयोग आरम्भ हुआ ,….यह सिर्फ़ परिचय मात्र के लिए था ! शायद यह मानव सभ्यता की शुरुआत थी,
आगे चलकर लोगों मे भेद-भाव शुरू हो गया, …..अपने-अपने काम को समूह के लिए महत्वपूर्ण बता के अपनी जाति ( अपने जैसे कार्य करने वालो का समूह) को महत्वपूर्ण सिद्ध करने की कोशिश होने लगी, और इस तरह उँछ-नीच का भाव समाज मे पनपने लगा ! शायद यह मानव असभ्यता की शुरुआत थी! वास्तव मे यह घटना उस समय के लिए कोई बड़ी बात नही थी, क्योकि आज भी कुछ लोग साथ रहते हैं तो समय के साथ उनके आपसी संबंधों मे खटास आ ही जाती है, कौन ज़्यादा काम करता है? कौन कम काम करता है? कौन ज़्यादा कमाई करता है और कौन कम? किसका काम ज़्यादा महत्वपूर्ण है? ऐसी चर्चाए आज भी किसी भी समूह मे टुट का कारण बन जाती है! लेकिन आज के परिदृश्य मे उस घटना का बेहद बुरा प्रभाव हमारे समाज मे देखने को मिल रहा हैं,…
बदलते समय के साथ परिचय के लिए बने ‘जाति सूचक शब्द’ सामाजिक विखंडन का आधार बन गये….इसे हमारे राजनेताओं ने भी बखूबी इस्तेमाल करके अपनी राजनीतिक परिपाटी को मजबूत बनाने का काम किया ! लोगों को जातिवाद रूपी जाल मे इस तरह फँसाया गया और उनका जमकर शोषण किया गया…..इस बीच ‘जातिगत आरक्षण रूपी’ दाने भी डाले गये…और जिस तरह कोई शिकारी दाने डाल कर कबूतरों को अपनी जाल मे फँसा लेता है, उसी तरह इस देश के राजनेताओं ने लोगों को ‘जातिगत आरक्षण’ रूपी दाने डाल कर लोगों को जातिवादी जाल मे फँसाने का काम किया…..
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