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“सही और ग़लत” की करोड़ो परिभाषाएँ होते हुए भी, आज तक ये शब्द अपरिभाषित है ! आज तक हम ‘सही-ग़लत’ की सर्वमान्य परिभाषा नही बना पाएँ है ! हम यह तय नही कर सकें है की निश्चित रूप से क्या सही है और क्या ग़लत ? संपूर्ण ब्राम्हांड मे ऐसा कोई कार्य-व्यवहार नही जिसे ग़लत साबित नही किया गया है, और जिसे सही साबित ना किया जा सकें ! वास्तव मे ‘सही-ग़लत’ की हमारी परिभाषा व्यक्ति विशेष के साथ बदलती जाती हैं, यह काफ़ी हद तक व्यक्तिगत नज़रिया और हमारी तत्कालिक अवधारणा पर निर्भर करती है ! हम बाज़ार मे खरीदारी के लिए जाते हैं, कुछ चीज़े देखते हैं और पसंद कर लेते हैं, वह वास्तु हमारे नज़र मे ‘सही’ होती है, वही बगल मे बैठे दूसरे इंसान को वह पसंद नही होती है, और उसके लिए वह ‘ग़लत’ हो जाती है,! समझने की ज़रूरत है की एक ही वास्तु, एक ही समय पर अलग-अलग नज़रों की वजह से ‘सही और ग़लत’ दोनो साबित हो गयी ! कई मामलों मे एक ही इंसान एक ही घटना को अलग-अलग परिस्थितियों मे अलग-अलग परिभासित करता है!
हम अपने आम जन-जीवन मे ही देखें तो यही स्पष्ट होता है की ‘सही-ग़लत’ की स्थाई और सर्वमान्य परिभाषा नही है ! उदाहरण देखे की , ‘चोरी करना एक ग़लत काम है’ लेकिन उस पिता को ग़लत कैसे कह सकते हैं, जो अपने भूखे पुत्र को जीवित रखने के लिए चोरी करने को मजबूर हो जाता है ! अपने समय का बहुत बड़ा डकैत और चंबल का आतंक वीरप्पन पूरी दुनिया के लिए ग़लत इंसान था, उसके कर्म ग़लत थे, लेकिन उन आस-पास के गाँवों मे रहने वाले कई लोगों के लिए वह मशिहा भी था, उन लोगों के लिए उसके कर्म ग़लत नही थे !
वास्तव मे ‘सही-ग़लत’ की सर्वमान्य परिभाषा न होना, मानवीय अस्थिरता का कारण है! आज ‘सही-ग़लत’ के पैमाने के तौर पर हर देश के पास अपना क़ानून है, लेकिन ये क़ानून भी तब तक अपुष्ट हैं जब तक ‘सही-ग़लत’ की सर्वमान्य परिभाषा ना हो ! हालात के साथ जिस तरह ‘सही-ग़लत’ की परिभाषाएँ बदलती हैं, ऐसे मे किसी भी क़ानून की संपूर्णता और स्थिरता पर सवाल आवश्या खड़े होंगे!
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