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नमस्कार मित्रों, पिछली कई बार कि तरह एक बार पुनः, आप सबों के समक्ष एक ‘ नई रचना’ रखने का दुःसाहस कर रहा हूँ ! शायद पहली बार मेरी रचना, मेरे परम्परागत विषयों से हटकर है,…उमीद है कि आप को पसंद आएगी……..
सभी वरिष्ठ कवि गुरुओं, के आशीर्वाद से तैयार मेरी रचना ‘” हम भी कभी…. ………..
हम भी कभी, …………..
जश्ने महफिली कि आवाज हुआ करते थे,
गुल कि बगिया में गुले बहार हुआ करते थे !
नफरत का कांटा न था हममे,
खिलते फूलों कि साज हुआ करते थे !!
न दर्द था, न दवा थी,
फिजाओं में मस्ती कि हवा थी !
पन्नो में सिमट जाती थी अपनी आशिकी,
नाम होते हुए भी,बदनाम हुआ करते थे !!
रूह भी थी, रूहानी,
दुनियावालों के लिए अपनी भी थी एक प्रेम कहानी !
महकता नशा था यौवन का,
‘पर’ बिन परिंदों कि तरह आज़ाद हुआ करते थे !!
दोस्त मिलते थे सपनों कि तरह,
दुश्मन भी मिलते अपनों कि तरह !
मरने का न डर था, ना जीने का इरादा,
धोनी के छक्कों पर बर्बाद हुआ करते थे !!
बचपन कि बातें,
शरारत भरी अनदेखी रातें !
पलक बिछाती चांदनी कुछ इस तरह,
ख्वाबों में ही सही, नवाब हुआ करते थे !!
मन के मंदिर में सचाई का डेरा,
माँ के आँचल में स्वर्ग का बसेरा !
पलकों के निचे सजते सपने इस तरह,
पिता के ‘कलाम’, दोस्तों के सलमान हुआ करते थे !!
हम भी कभी, ………..
जश्ने महफिली कि आवाज हुआ करते थे,
गुल कि बगिया में गुले बहार हुआ करते थे !
नफरत का कांटा न था हममे,
खिलते फूलों कि साज हुआ करते थे!!
-आपके आशीर्वाद का आकांक्षी —
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