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एक कहानी: अतिथि देवता
एक बार गर्मियों की छूटी में एक पुराने पारिवारिक मित्र हमारे घर पधारे ! उनकी बड़ी खातिरदारी हुई, तरह-तरह के देशी व्यंजन बनाये गए. .! उन्होंने आतिथ्य सत्कार का भरपूर आनंद लिया ! वैसे भी गांव वालों के अतिथि सत्कार में मौसम कोई कारण नहीं होता, चुकी हमारे पारिवारिक मित्र शहर से थे, जोश-जोश में व्यंजन उड़ा तो गए, लेकिन कुछ ही देर में उनकी पाचन-शक्ति ने ‘रेड-सिग्नल’ दिखा दिया…मस्तिष्क ने भी आपातकाल की घोषणा कर दी! आनन-फानन में देशी नुश्खे आजमाए गए….! अब बात देशी नुस्खों से इलाज की हो तो, यहाँ भी गांव वालों का अतिथि प्रेम दिख ही जाता है! गांव में जिसको खबर मिली, फलां के घर रिश्तेदार आये है, और उनकी तबियत खराब हो गयी है,……. काम को मारो गोली….. काम-धाम होते रहेंगे …. बेचारा परदेशी ठीक हो जाये !
मोहल्ले के लोग जुट गए! जितने लोग उतने नुश्खे, पुरुष जड़ी-बूटियों पर लगे हुए थे, तो कई महिलाएं…सारे देवताओं का आह्वाहन कर रही थी, कई महिलाएं तो बकायदा देवताओं को लालच भी दे रही थी, “हे भगवन अगर बाबू जी, ठीक हो गए तो ५१ रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँगी ” आदि,आदि! एक प्रकार का भ्रस्टाचार हो रहा था! लेकिन अजीब बात थी की किसी का नुश्खा काम नहीं कर रहा था, ! सारे लोग परेशां, अब क्या किया जाय….
काफी हो-हल्ला मचने के बाद, मेरे पिताजी ने आक्रामक निर्णय लिया! “अब कोई देशी इलाज नहीं होगा, कौनों देवता-देवी के जरुरत नाही है..” आख़िरकार यह तय हुआ की ‘अतिथि देवता’ को नजदिकी शहर के किसी डॉक्टर से दिखाया जाय,अर्थात अब जिमेदारी मेरे कंधे पर थी!
मैं अपने निजी वहां से उन्हें लेकर शहर के एक बड़े डॉक्टर के यहाँ गया, ! बड़े और प्रसिद्ध डॉक्टर होने के कारण भीड़ भी अच्छी-खासी थी! सभी लोग प्रवेश पंजी पर अपना-अपना नाम व् पता दर्ज करा, अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ! कुछ ऐसे भी रोगी थे, जिनकी स्थिति काफी चिंताजनक थी, बावजूद इसके वे पूरी तन्मयता से अपनी बारी (क्रम) की प्रतीक्षा कर रहे थे! हमने भी अपना नाम पंजी में अंकित करवाया, और एक कोने में बैठकर अंदर से बुलावे का इंतजार करने लगे! वैसे भी अस्पताल का माहौल गमगीन सा होता है, सबके चेहरे उदासी में लटके होते है, ऊपर से गर्मी की मार ऐसी थी की, समझ नहीं आ रहा था की कौन रोगी है? और कौन रोगी का साथी? सभी बेहाल-बेसुध थे!
अचानक बाहर एक ‘ऑटो’ के रुकने की आवाज आती है, कुछ ही देर में एक सज्जन से दिखने वाले श्रीमान अपने रोगी संग पधारते है, ! पहली नजर में ऐसा लगा की वे इलाज कराने नहीं किसी बिछड़े को ढूढ़ने आये है ! दो मिनट इधर-उधर देखने के बाद अचानक ही उनके चेहरे पर एक चमक सी आ जाती है! थोड़ी दायें-बाएं होते हुए वे डॉक्टर साहब के दरवाजे पर खड़े ‘द्धार-रक्षक’ के पास पहुँचते है, उनके बीच एक छोटी सी गुफ्तगू होती है और सबकी नजर बचाकर, वे एक सौ का नोट उसके हाथ में थमा देते है,! उधर ‘द्धार रक्षक’ भी कोई हरिश्चंद्र के खानदान से तो था नहीं, हल्की मुस्कान के साथ उसने भी तोहफे को कबूल किया ! कुछ ही देर में श्रीमान को उनके रोगी सहित डॉक्टर साहब के केबिन में प्रवेश करा दिया गया….कुछ लोगों ने आपत्ति कि तो, डॉक्टर साहब का खास बताकर चुप करा दिया गया !
पांच मिनट पश्चात श्रीमान अपने रोगी सहित बाहर आते हैं, और सबकी तरफ एक कुटिल मुस्कान के साथ देखते है! उस समय उनके चेहरे का भाव देखकर ऐसा लग रहा था की श्रीमान ने बिना दौड़ प्रतियोगिता में शामिल हुए, दौड़ स्पर्धा का ‘स्वर्ण-पदक’ जीत लिया हो ! माहौल ऐसा था की गलत कर के भी वे ‘खुशहाल’ थे…सही हो के भी हम शर्मिंदा थे! खैर हमने अपनी बारी के अनुसार अपने मित्र का इलाज करवाया, डॉक्टर साहब ने कई दवाये दी! हम घर को आ गए …साहब दवाओं के सेवन से ठीक भी हो गए ! दो दिन रहने के बाद वे चले गए….हमने उन्हें अगली छूटी में आने के वादे साथ…विदा किया !
—— के.कुमार “अभिषेक” (११/०५/२०१४)
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