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एक तरफ जहाँ हमारी सरकार हिंदी के उत्थान के लिए बड़े और सार्थक प्रयास कर रही हैं, वहीँ हिंदी के आधुनिक साहित्यकारों की सोच और विचारधारा लगातार हिंदी के विकास में बाधक बन रही हैं! मुख्य रूप से जब हम हिंदी साहित्य की बात करें, तो यह जानना बेहद दुखद है की आधुनिक हिंदी साहित्य के बड़े साहित्यकारों ने अपनी सोच को ही साहित्य का पैमाना मान लिया है! अपनी रचनात्मक सीमाओं को ही वे “साहित्य की सीमा ” मान बैठे हैं! उन्हें लगता है की साहित्य उनके व्यक्तित्व में ही पूर्ण हो गया है, ! फलस्वरूप हिंदी साहित्य कुछ संकुचित दिवारों में कैद हो चुका हैं! जिस साहित्य ने भारतीय समाज को रूढ़िवादी विचारों की कैद से मुक्त करने का काम किया, जिस साहित्य ने लोगों को आज़ादी का मतलब सिखाया, आज उसी साहित्य का कुछ लोगों की संकीर्ण एवं रूढ़िवादी विचारों में कैद होना…इस भाषा का दुर्भाग्य हैं!
आज स्थिति बेहद दुखद है कि कुछ बड़े रचनाकार साहित्य को मनोरंजन का साधन मान बैठे हैं तो, कुछ लोगों के लिए दूसरों कि रचनाओं को परिवर्तन के साथ पेश करना ही साहित्य है! सर्वाधिक अजीब बात तो यह कि, कुछ रचनाकार हिंदी के जटिल एवं आम बोल-चाल कि भाषा में प्रयुक्त नहीं होने वाले शब्दों के प्रयोग को ही साहित्य मानते हैं! ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी रचनाये आम-जन मानस तक पहुंच पाएंगी? जटिल शब्दों से परिपूर्ण रचनाएँ, जो सामान्य इन्शान को समझ नहीं आ सकती…क्या समाज में सार्थक संदेश दे पाएंगी? संभव ही नहीं! स्पष्ट है कि आज साहित्य का उदेश्य बदल गया है, विद्वानो के मुख से चार अच्छे शब्द प्राप्त कर लेना और मंच पर तालियां पा लेना ही साहित्य कि सार्थकता बन गया है! रचनाएँ देश कि जनता के लिए नहीं, बड़े विद्वानो के लिए रची जा रही है….ऐसे में अगर आम जनता, आज कि युवा पीढ़ी साहित्य से दूर जा रही है तो, कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए! वास्तव में हालात और परिस्थितियों कि तार्किक विवेचना हम करें तो, यह कहना गलत नहीं होगा की आम जनता साहित्य से दूर नहीं हो रही हैं, अपितु साहित्य ही आम जनता से दूर हो रहा हैं! साहित्य एक ऐसे संकुचित राह में प्रवेश कर चुका है, जहाँ आज के स्वछंद एवं खुल्ले विचारों के लिए कोई जगह नहीं है!
आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी साहित्य के प्रति बेरुखी दिखा रहा हैं, जिस तरह हमारी आनेवाली पीढ़ी साहित्य से दूर हो रही है…ऐसे महानुभावों को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है! अगर हम वास्तव में हिंदी एवं हिंदी साहित्य के उत्थान के प्रति गंभीर हैं, तो हमें साहित्य को नए ढंग से परिभाषित करना होगा! विद्वानों की पसंदगी साहित्य का पैमाना नहीं हो सकता ! इतिहास गवाह है कि, जब-जब देश में परिवर्तन की बयार बही है, उस बयार को तूफान में बदलने का काम किया है ‘साहित्य’ ने ! साहित्य अगर आम जनता कि भावनाओं को छू सके, ….समाज में वैचारिक परिवर्तन कि नीव डाल सके…..सही मायनो में साहित्य कि सार्थकता पूर्ण हो जाती है! समाज एवं राष्ट्र का वैचारिक नेतृत्व साहित्य कि सार्थकता और रचनात्मकता का पैमाना होना चाहिए!
स्वस्थ वैचारिक आज़ादी का नाम ही साहित्य है, “परिवर्तन क्रांति” का नाम साहित्य है! साहित्य की सीमाएं अनन्त है, इसकी सीमाओं को अपनी सोच में कैद करना, साहित्य का अपमान है! जो लोग अपनी सोच को ही साहित्य का पैमाना मान बैठे हैं, उन्हें समझाना होगा की, कहीं उनकी नीति हिंदी साहित्य के पतन का कारन ना बन जाये ! रचनाएँ लोगों तक पहुंचे, उन्हें समझ में आएं….इसके लिए प्रयास होना चाहिए! अनादि काल से साहित्य ने समाज का नैतिक एवं वैचारिक मार्गदर्शन किया है, स्वस्थ समाज को बनाये रखने में साहित्य ने बड़ी भूमिका निभाई है! आज ऐसे समय में जब समाज में मानवीय, सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की कमी सामने आ रही है, भ्रस्टाचार, अपराध, कुकर्म, बलात्कार जैसी घटनाएँ बढ़ रहीं है…निश्चय ही हमें साहित्य की भूमिका को प्रखरता के साथ ‘जनहित’ की तरफ मोड़ना होगा ! ऐसे में हिंदी के साहित्यकारों को अपनी भूमिका पर नए सिरे से आत्म मंथन करना होगा! यह प्रयास करना होगा की , रचनाएँ सिर्फ बड़े विद्वानो से प्रसंशा के लिए न लिखी जाएँ…कुछ तालियों में न सिमट के रह जाएँ…अपितु वे आम जनता की भावनाओं को कुरेंदे, लोग रचनाओं को पढ़े और समझे …जिससे समाज के अंदर गिरते नैतिक मूल्यों में कमी आये, देश और समाज में बिगड़ते हालात के विरुद्ध माहौल बने और , हमारा समाज पुनः एक बार साहित्य के वैचारिक मार्गदर्शन में मजबूती के साथ आगे बढ़ सके !
साथ ही हमें साहित्य को जड़वत होने से बचाने के लिए नयी सोच एवं नयी ऊर्जा को जगह देनी होगी! और इसके लिए पुराने बने-बनाये पैमानों को आवश्यकतानुसार तोडना होगा! हम रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं तय कर सकते हैं…ऐसा होना साहित्य को सीमित करने का प्रयास हो सकता है!
–के.कुमार “अभिषेक” (२३/०६/२०१४)
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