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भारतीय समाज सदियों से धार्मिक परम्पराओं के नाम पर बने रूढ़िवादी विचारों से प्रभावित होता आया है| समाज के कुछ विक्षित सोच वाले लोगों ने अपने आपको धार्मिक मसीहा सिद्ध करके …लोगों को काल्पनिक, अव्यवहारिक व् असामाजिक तथ्यों में उलझाने का काम किया | अपनी अस्वस्थ सोच के तहत धर्म की आड़ में लोगों को मानसिक गुलाम बनाने का सफल प्रयास किया गया…जिसके लिए ऐसे-ऐसे तर्कों, संवादों, कहानियों का प्रयोग किया गया..जिन्हे स्वस्थ मस्तिष्क के साथ स्वीकार करना संभव नहीं लगता ! भारतीय समाज के तत्कालीन हालत को देखते हुए..जब हम आज की परिस्थितियों कि वास्तविक विवेचना करें तो, कहना बिलकुल भी गलत नहीं होगा कि, आज के हालत ज्यादा सुखद हैं | आज जिस तरह से लोग धर्म की आड़ में बने पाखंड के साम्राज्य की हकीकत को समझ रहे हैं, जिस तरह लोग अपने ज्ञान की नजर से धर्म की काल्पनिक संरचना को समझने में दिलचस्पी ले रहे हैं, जिस तरह वर्षों पुरानी रूढ़िवादी, व् ढोंगापंथी की परम्पराओं के प्रति जागरूक हो रहे हैं….वास्तव में एक खुशनुमा अहसास से ह्रदय प्रफुल्लित हो उठता हैं! लेकिन जब भी हम राष्ट्र को मद्देनजर रखते हुए बड़े सन्दर्भ में वर्तमान हालत को देखते हैं ..धर्मनिरपेक्ष आधार पर परिवर्तनवादी सोच की कमी अवश्य खलती है| अक्सर यह देखा गया है कि, जब भी इस समाज का शिक्षित वर्ग धार्मिक व् सामाजिक परिवर्तन की बात करता हैं, जब भी अंधविस्वास, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, की बात होती है, असामाजिक, अव्यवहारिक और काल्पनिक कहानियों, तर्कों और रूढ़िवादी विचारों का जिक्र होता है….माना जाता है की बात सिर्फ हिंदुत्वा की हो रही हैं| ऐसा क्यों है? क्या हम यह मानते हैं कि, समाज के बहुसंख्यक वर्ग के सुधरने मात्र से ही देश सुधर जायेगा या, हम यह मानते हैं कि, अन्य धर्म पूर्णतः सही है, उनमे सुधार कि आवश्यकता ही नहीं है | क्या अन्य धर्मों में जातिवाद, पंथवाद, अंधविस्वास नहीं है? क्या अन्य धर्म रूढ़िवादी परम्पराओं, काल्पनिक व् अव्यवहारिक तथ्यों, मानवता और इंसानियत को खंडित करने वाली पाखंडी एवं कट्टरवादी सोच से विमुक्त हैं?
अगर नहीं तो सिर्फ एक धर्म विशेष ही आरोपी क्यों?
जहाँ तक मुझे पता है, अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बना हैं जिसे पाखंड का पैमाना माना जा सके | जो साबित कर सके कि फलां धर्म में पाखंड कि अधिकता है….बाकि सभी विशुद्ध है | वास्तव में इस देश को पाखंड और अन्धविश्वास कि जाल से मुक्त कराने और मानवता को अखंडित होने से बचाने के लिए धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों कि प्रक्रिया को धर्मनिरपेक्ष बनाना होगा | जिस तरह से आज हिन्दू धर्म को मानने वाले ‘धर्म’ कि खामियों के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं, लोग खुलकर और निडर भाव से धर्म संचालकों के असामाजिक कृत्यों के विरुद्ध विचार रख रहे हैं, जिस तरह धार्मिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सामाजिक माहौल बन रहा हैं…..सभी भारतीयों को आगे आना होगा ! वे चाहे किसी भी धर्म के हों, उनकी संख्या न्यूनतम ही क्यों न हों…. उन्हें अपने समाज और राष्ट्र कि स्वच्छता के लिए प्रयास करना ही चाहिए | आज का दौर लोकतान्त्रिक व्यवस्था का हैं, जहाँ हर व्यक्ति को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने कि आज़ादी है | धार्मिक व्यवस्था कि खामियों के विरुद्ध आवाज उठाना, और स्वस्थ धार्मिक परम्परा के लिए प्रयास करना ”ईशनिंदा” नहीं हो सकता है | अगर वास्तव में ईश्वर है, वह ऐसे प्रयाशों पर कभी नाराज नहीं हो सकते | ऐसी अफवाहे लोगों को धर्म के प्रति प्रतिक्रियाहिन बनाने के लिए फैलाई गई है, …धर्म को शासन का माध्यम नहीं बनाया जा सकता, लोगों को इसकी आड़ में वैचारिक गुलाम बनाना अपने आप में सबसे बड़ा अधर्म है |
हमें बेहद गहराई से इस तथ्य को समझना होगा कि किसी भी धर्म कि स्थापना का उदेश्य मानवता को खंडित करना नहीं था | यीशु मसीह, हज़रत मुहमद साहब, गौतम बुद्ध, गुरुनानक देव, और महावीर जैसे महापुरुषों कि सोच ऐसी नहीं हो सकती है | ये सभी सम्पूर्ण मानवता के समर्थक थे, इसलिए ये सभी मानवों के लिए आदर्श हैं,..और रहेंगे | सच तो यह हैं कि इनके बाद के धर्म संचालकों ने अपनी विक्षित सोच से पैदा हुई विचारधारा को इनके (धर्म संस्थापकों) नाम के साथ जोड़कर समाज में नकारात्मकता फ़ैलाने का कार्य किया, लोगों में धर्म के नाम पर गलत सन्देश दे कर समाज को खंडित करने का प्रयास किया गया , लोगों में एक दूसरे के प्रति जहर घोलने का प्रयास किया गया | वहीं कुछ धर्म संचालकों ने धर्म के नाम पर ही अपना बड़ा साम्राजय स्थापित कर लिया , अर्थात धर्म को राजनीति और साम्राज्यवाद का आधार बना मानवीय गुटबंदी कि गई ….और आम लोग स्वार्थ और लालच को धर्म समझते रहे |
अब लोगों को जगना होगा, हमें समझाना होगा को एक स्वस्थ विचारधारा के प्रभाव में आकर हम सभी अलग-अलग धर्मों में खंडित हो गए …अन्यथा हम सभी इन्शान ही हैं | यह ठीक वैसा ही है…जैसे हम सभी भारतीय होते हुए भी विभिन्न राजनीतिक विचारों में बंटे हुए है,…कोई कोंग्रेसी है, कोई भाजपाई है, कोई कम्युनिस्ट है तो कोई ‘आपवाला ‘ है | यह प्रश्न बेहद लाज़मी है कि इन धर्मों कि स्थापना से पहले हम (हमारे पूर्वज) किस धर्म में थे? स्पष्ट है कि मानवता के धार्मिक विखंडन का आधार सिर्फ व् सिर्फ वैचारिक है अनुवांशिक नहीं | हमें उस भाव को जगाना होगा, मानवतावादी सोच को पुनर्जीवित करना होगा…और तभी हम एक स्वस्थ समाज कि स्थापना कर सकते हैं, एक मजबूत राष्ट्र कि नींव रख सकते हैं | यह देश अल्पसंख्यकों -बहुसंख्यकों का नहीं हैं, पूर्णसंख्यकों का है. यह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाईयों कि भूमि नहीं….१२५ करोड़ भारतीयों कि भूमि है | इस मिटटी के १२५ करोड़ सपूत हैं, इसने अपने पुत्रों में कभी भेद-भाव नहीं किया…हमें शर्म आनी चाहिए कि हम अपने ही भाइयों के साथ भेद-भाव कर रहे हैं|
– के .कुमार ‘अभिषेक’ (15/07/2014)
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