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व्यवहारिकता के तराजू पर ‘धर्म’

YOUNG INDIAN WARRIORS
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हमारा भारतीय समाज धर्म के आधार पर दो खण्डों में विभाजित है – आस्तिक और .नास्तिक | जिन्हे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास है, वो आस्तिक कहे जाते हैं..वहीँ जिन्हे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नही है उन्हें ‘नास्तिक’ अर्थात धर्म विरोधी माना जाता है | धर्म के प्रति दोनों (पक्ष और विपक्ष) की विचारधाराएँ हर जाति (सामाजिक विखंडन का आधार) हर संप्रदाय में पायी जाती है| वास्तव में देखा जाये तो ..इसमें कोई शक नहीं की ईश्वर में विश्वास करने वाले लोगो की सोच काफी भ्रमित विचारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है..लेकिन हमारे समाज का वह वर्ग जो अपने आपको धर्म विरोधी साबित करने के लिए हर धार्मिक मर्यादा को तोड़ने का प्रयास करता है…ऐसे लोग भी कम भ्रमित नहीं है | वास्तव में हमारा समाज धर्म के नाम पर लगातार विभाजित हो रहा है, दोनों पक्ष अपनी बात को मनवाने और सिद्धांतों कि जीत को जीवन का उदेश्य बना बैठे है, ऐसी स्थिति में किसी स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है| ऐसा समाज जो पूर्णतः भर्मित हो चुका है, कभी भी विकास की राह पर अग्रसर नहीं हो सकता है | हमें इस विषय पर बेहद गंभीरता से चिंतन करना होगा, अन्यथा यह वैचारिक लड़ाई इस समाज के पतन का कारन बन के तेजी से उभर रही है|

हमें पूरी गंभीरता से इस बात को समझना होगा कि, एक ‘स्वस्थ, व्यवहारिक, अकाल्पनिक धर्म’ कि आवश्यकता हर सभ्य समाज को है| धर्म हमें नैतिक और व्यवहारिक तौर पर अनुशासित और नियंत्रित रखता है | इसमें कोई दो राय नहीं हो सकता कि..कई विसंगतियों के बावजूद प्राचीन भारतीय समाज ज्यादा स्वस्थ और अनुशासित था | लोगों में आपसी प्रेम-भाईचारा, ईमानदारी थी | उनके अंदर हमेशा पाप-पुण्य, और स्वर्ग-नरक का डर रहता था, और यही डर उन्हें गलत करने से रोकता था | इसे हम आधुनिक परिभाषा में मानसिक गुलामी का नाम दे सकते है, लेकिन उस समाज कि स्वस्थ जीवनशैली को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है| ईश्वर हो या, नहीं..लेकिन ईश्वर के डर से जो अनुशासन का माहौल बना..उसने समाज को स्वस्थ बनाने का कार्य किया | लेकिन आज हालात बदल रहे हैं, आज लोग शिक्षित हो रहे हैं, और हर शिक्षित इंसान ..हर तथ्य को स्वयं कि नजर से देखने और समझने का प्रयास करता है| ऐसे लोगों को भ्रामक, काल्पनिक और अव्यवहारिक तथ्यों के आधार पर अनुशासित नहीं किया जा सकता है | यहाँ आवश्यकता है कि, जो लोग आज ‘धर्म’ के स्वघोषित पैरवीकार बने हुए है…अपनी आँखें खोलें…और आज के समाज, विशेषकर युवाओं कि मनोदशा को समझने का प्रयास करें|
आज मेरे हमउम्र युवाओं में ‘धर्म’ के प्रति जबरदस्त विरोधाभास है, जिसके लिए स्वयं वो लोग जिम्मेदार हैं..जो आज ‘धर्म संचालक’ बने हुए है| आज कमोबेश सभी ‘धर्म’ अधार्मिक और अमानवीय गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे हैं | लोगों कि आस्था का मजाक बनाया जा रहा है, धार्मिक भ्रष्टाचार चरम पर हैं| धर्म कि आड़ में कई लोगों ने अपना सुरक्षित ‘काला साम्राज्य’ खड़ा कर लिए है..अजीब तो यह कि कई कुख्यात अपराधियों को अपना चेहरा छिपाने का सबसे उपयुक्त माध्यम बन चुका है धर्म और इससे जुड़े कार्य | वास्तव में पूर्व से ही अव्यवहारिक, काल्पनिक, और भ्रामक तथ्यों, और कहानियों से भरे-पड़े ‘धर्म’ में आज जिस तरह धार्मिक भ्रष्टाचार, नैतिकताविहीन आचरण, द्धेष-जलन, अपराध, स्वार्थ,लालच, और लोगों कि आस्था का भरपूर शोषण हो रहा है…ऐसा जब तक होता रहेगा, किसी स्वस्थ और शिक्षित मस्तिष्क का इन्शान ‘धर्म’ कि तरफ नहीं लौट सकता है| आँखें मूंद लेने से सच नहीं बदलता है, आज इस देश का युवा भारतीय संस्कृति कि अपेक्षा ‘पश्चिमी संस्कृति’ कि तरफ आकर्षित हो रहा है, आने वाले कल में इस देश में, इस समाज में अपनी ही संस्कृति को मानने वाले अल्पसंख्यक होंगे ..और ऐसी किसी भी स्थिति के लिए वो सभी ‘धर्म संचालक’ जिम्मेदार होंगे…जिन्होंने धर्म को ‘बाजार’ बना दिया है|

आज अगर हम वास्तव में अपने धर्म और धार्मिक संस्कृति को लेकर चिंतित है, अगर हम वास्तव में अपनी संस्कृति को बचाना चाहते हैं, हमें हालात को व्यहारिकता कि दृष्टि से समझना होगा | धर्म के व्याप्त खामियों, और विसंगतियों को तत्काल दूर करने का प्रयास करना होगा, इसके लिए प्रतिबद्ध लोगों ..धर्म के अंदर ही ‘सफाई’ का प्रयास करना होगा…पाखंड और ढोंगीपंथी कि दुकानो को बंद करना होगा | साथ ही धर्म को नए ढंग से परिभाषित करने कि आवश्यकता हैं, व्यवहारिकता और वास्तविकता के तराजू पर तौलना होगा | काल्पनिक और भ्रामक तथ्यों के साथ आज के युवाओं को ‘धर्म’ के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है| एक इंसान के रूप में हमारे व्यक्तिगत कर्तव्यों को धर्म का आधार बनाना होगा, कर्तव्यों को पूरा करने के लिए किये जाने वाले प्रयास (कर्म) को ही ‘पूजा’ मानना होगा.(कर्म ही पूजा है). ईश्वर को निजी जीवन से भी जोड़कर देखने कि आवश्यकता है. माता-पिता और बड़ों को सम्मानित मानते हुए ही एक स्वस्थ परिवार और समाज कि सोच संभव है |वेदों में प्राकृतिक स्रोतों को ईश्वर का दर्जा दिया गया है, पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए उस सोच को वास्तविकता के साथ परिभाषित करना होगा | प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण ही उनकी पूजा होगी, अगरबती जला के जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने कि ‘कर्महीन’ सोच से बाहर निकलना होगा | ‘रामायण’ के नायक ‘राम’ के चरित्र का अनुशरण करने कि आवश्यकता है, लेकिन हमने उन्हें पत्थरों में बैठा दिया..चार अगरबत्तियां घुमाने से ज्यादा आवश्यकता ही नहीं पड़ी उनकी |
समय के साथ लोग बदलते हैं, परिस्थितियों बदलती है…नए लोगों कि भावनाओं से जुड़ने के लिए हर व्यवस्था में परिवर्तन कि आवश्यकता होती है | व्यवस्था परिवर्तनशील न हो, वह आधुनिक सोच के ऊपर बोझ बन जातीं है,…ऐसे में लोग बोझ से निजात पाना ही बेहतर विकल्प समझते है| जरुरत है कि आज हमारी धार्मिक व्यवस्था परिवर्तित हो, ज्यादा स्वस्थ, व्यवहारिक, और वास्तिक्त जीवन से जुडी हुई परिभाषा के साथ सामने आये..तो लोग इसे अवश्य ही हाथों-हाथ लेंगे और पुनः हम एक स्वस्थ भारतीय समाज कि नींव डाल पाएंगे | हमें आस्तिक और नास्तिक को परिभाषा से बाहर निकल के ‘वास्तिक’ (वास्तविक) बनना होगा |

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