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लगभग १० वर्षों के संप्रग के भ्रष्ट शासन से तंग होकर वर्ष २०१४ के लोकसभा में जनता ने भारी बहुमत के साथ ‘भारतीय जनता पार्टी’ को देश की बागडोर सौंप दी ! एक पल को लगा भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत हुई है…लेकिन ऐसा नहीं था ! इसमें कोई शक नहीं की आज़ादी के पश्चात देश की सत्ता कांग्रेस के हाथों में ज्यादा रही हैं, लेकिन सच तो यह भी है की पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति इन्हीं दो दलों के इर्द-गिर्द घूमती रही है! देश के सामने मजबूत विकल्प का आभाव.. इन दोनों पार्टियों की मजबूती का सबसे बड़ा कारण है! ऐसी स्थिति बना दी गयी की…हम जब भाजपा से तंग हुए तो कांग्रेस को सत्ता सौंप दी, और कांग्रेस से तंग हुए तो भाजपा को सत्ता सौंप दी ! सत्ता का संचालक बदल गया, चेहरे बदल गए..लेकिन नीतियां नहीं बदलीं ! कुछ तुम लूट लो..कुछ हम लूट लें ..के सिद्धांत पर देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था की बार-बार लुटिया डुबोई गयी ! ऐसा लगा की भारतीय लोकतंत्र को दोनों पार्टियों ने हाइजैक कर लिया ! समय-समय पर ‘बसपा’ और ‘वाम दलों’ ने इन्हे चुनौती देने का प्रयास किया लेकिन सत्ता के कुचक्र में ऐसे उलझें की खुद के ही टुकड़ें-टुकड़ें हो गए ! दलित राजनीति करके सत्ता के निकट पहुचने का स्वप्न देखने वाली ‘बसपा’ ..२०१४ के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत सकी ! इन घटनाओं को जितनी सहजता से हम स्वीकार कर लेते है…शायद यह भारतीय लोकतंत्र की गिरती साख का परिचायक है ! सर्वाधिक अजीब तो यह की आज भी हमारा लोकतंत्र कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिक कुचक्र में उलझा हुआ है, आज भी हम इनकी कुनीतियों में उलझें हुए हैं! कितना अजीब लगता है की जो कांग्रेस कल तक देश की सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में देश की सत्ता को संचालित कर रही थी, …आज एक ऐसी पार्टी की तरह व्यव्हार कर रही है, जिसे भारतीय राजनीति में कोई रूचि ही नहीं है ! आज जिस तरह हर जगह एक पार्टी को वॉकओवर दिया जा रहा है..कहीं न कहीं एक संशय उभरता है की हम पुनः इतिहास के चंगुल में उलझ रहे हैं! आज ‘कांग्रेस’ उसी नीति का अनुसरण कर रही है..जिसके सहारे दोनों दल पिछले कई दशकों से देश की जनता को धोखा देते आये हैं ! ‘कांग्रेस’ को इस बात पूर्ण अहसास है की अगले चुनाव तक जनता इस सरकार की कारगुजारियों से तंग आकर पुनः उन्हें ही सत्ता की चाबी सौपेगी ! और हकीकत भी यही है! हालाँकि काफी दिनों बाद भारतीय राजनीति में एक परिवर्तन की सुगबुगाहट देखने को मिल रही है..और इस सुगबुगाहट का केंद्र है ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव ‘!
भारतीय लोकतंत्र के छोटे से इतिहास में अब तक किसी भी प्रदेश की राजनीति को इतनी तवज्जों नही मिली…जितनी दिल्ली की प्रादेशिक राजनीति को मिल रही है और इसका एक मात्र कारण ‘आप’ है! चाहे ‘आप’ समर्थक हों, या ‘आप’ विरोधी ..लेकिन हर भारतवासी की नजरें दिल्ली चुनाव में ‘आप’ के प्रदर्शन पर टिक गयी हैं! ये सही है की अरविन्द केजरीवाल भारतीय राजनीति का बड़ा चेहरा नहीं है,..लेकिन सबसे प्रभावशाली चेहरों में से एक अवश्य हैं ! उनके प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है की..देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल ”भारतीय जनता पार्टी” जो अब तक ‘मोदी लहर’ के सहारे अपने विजयरथ पर सवार हैं…पहली बार बुरी तरह नर्वस हो रही है! वास्तव में कुछ हो या, न हो ….केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में एक नयी जान फूंकने का काम किया है! केजरीवाल भारतीय लोकतंत्र में नयी उमीदों, नए सपनों..और नए इरादों की पहचान बन रहे हैं ! दिल्ली में केजरीवाल की जीत सिर्फ एक प्रदेश की नहीं अपितु भारतीय लोकतंत्र की आवश्यकता हैं! यह सिर्फ एक चुनावी जीत नहीं..भारतीय राजनीति के बदलते समीकरणों में नयी राजनीति के उदय का आरम्भ होगा!
हालाँकि यह कहना बहुत जल्दबाजी होगा की केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ वर्षोंं से चले आ रहे, इस कुचक्र से देश को निकाल पायेगी …लेकिन कुछ तो है इस सख्स में जिसपर आज पुरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं! उसे मिटाने के लिए जिस तरह बड़ी पार्टिया हर दांव-पेंच आजमा रही है…यह दर्शाता है की भविष्य के खतरे की आशंकाओं ने उनकी नींदे हराम कर रखी है! वास्तव में केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को लेकर जो उमीदें और जो सपनें जगाएं है, उसकी वजह उनकी जुनूनी सख्सियत है! चाहें वह अन्ना के साथ मिलकर ”भ्रष्टाचार के विरुद्ध” आंदोलन खड़ा कर देश को झकझोरना हो,, या अन्ना से मतभेद होने के बावजूद राजनीति में आना..और पहले ही चुनाव में दिल्ली में बड़ी सफलता प्राप्त कर, मुख्यमंत्री बनना…४९ दिन में बड़े-बड़े फैसलों से दूसरे राजनीतिक दलों की नींद हराम करना, अचानक मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ना एवं लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध हारी हुई बाजी पर अपना दांव लगाना ! उनके क्रियाकलाप एक जुनूनी सख्सियत को प्रदर्शित करते है..जो कभी भी कुछ भी कर सकता हैं! जिसके लिए न तो कुछ निश्चित है…और न ही कुछ अनिश्चित ! हालाँकि भारतीय राजनीति को स्थिरता की आवश्यकता है…जबकि ऐसे व्यक्तित्व असंतुलन का कारण हो सकते है! लेकिन आज जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां देश में जम चुकीं है..कहीं न कहीं केजरीवाल जैसा जुनूनी सख्स ही नयी संभावनाओं के साथ देश को राजनीतिक कुचक्र से बचा सकता है ! दिल्ली में ‘आप’ की चुनावी जीत और केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनना …देश की राजनीति में बड़े क्रांतिकारी बदलाओं का आरम्भ हो सकता है! आज दिल्ली की जनता के हाथों में सिर्फ एक प्रदेश का ही नहीं अपितु देश के राजनीतिक भविष्य की भी चाबी है! देखना दिलचस्प होगा की, क्या दिल्ली एक राजनीतिक परिवर्तन की सुगबुगाहट को तूफान में बदलने का मौका देगी? क्या दिल्ली भारतीय लोकतंत्र में नए सपनों को उड़ान का मौका देगी? …या, पुनः एक बार बड़े दलों के राजनीतिक कुचक्र में उलझ कर इतिहास के परावर्तन की गवाह बनेगी !
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