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समाचारपत्रों में छायी बिहार चुनाव की सरगर्मी के बीच ….वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य के बड़े हस्ताक्षरों का ‘साहित्य अकादमी पुरुस्कार’ लौटाने की खबरे लगातार एक कोना पकड़ें हुए हैं ! अब तो साहित्यकारों से आरम्भ हुआ ये कारवां देश के सम्मानित इतिहासकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों तक जा पंहुचा हैं ! प्रश्न अहम हैं …जिन साहित्यकारों ने आज़ादी के पश्चात भारत रूपी वृक्ष को अपने स्याह से सींचा हैं,…जिनके अनथक परिश्र्म और तपस्या (चिंतन) ने इस समाज को न सिर्फ पथभ्रष्ट होने से बचाने का काम किया हैं, अपितु उसे नवमार्ग पर अग्रसित कर आधुनिकता से भी परिचय कराया हैं…प्रश्न बड़ा हैं, आज ऐसी कौन सी आफत आ पड़ी हैं, जो इन्हे एकजुट होकर इतनी बड़ी संख्या में …साहित्य अकादमी जैसा गौरवपूर्ण सम्मान भी लौटाना पड़ रहा हैं? इस विरोध की वजह क्या हैं? क्या वे वजहें सिर्फ किसी व्यक्ति या साहित्यकारों से जुडी हैं…या उन वजहों/उन हालातों का राष्ट्र औऱ समाज के लिए भी कोई औचित्य हैं? ..कारण जो भी हो, समाज के बुद्धिजनों का इस तरह विरोध पर उत्तर आना दर्शाता हैं कि….हालात सुखद नहीं है!..दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र खतरे में हैं, लोकतंत्र विरोधी शक्तियां इस देश की जड़ों को खोखला करने में लगी हुई हैं! हमें यह तय करना होगा…आज हमारे साहित्यकारों ने जो प्रश्न उठाया हैं…कब तक हम उसे यूँ ही लेते रहेंगे? क्या हम उस दिन का इंतजार कर रहे हैं…जब भारत अपनी संस्कृति औऱ पहचान भुला…कट्टरवादी ताकतों का गुलाम बन जायेगा? अगर नहीं, तो फिर हमें हालात को नजरअंदाज करने से बचना होगा !
आज गांधी के देश में …गांधी के विचारों की हत्या हो रही हैं! दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का लोकतान्त्रिक दम्भ …आज अपने ही कुछ पथभ्रष्ट बंधू-बांधवों की वजह से चूर-चूर हो रहा हैं.! देश के बड़े प्रभावशाली लेखकों में से एक प्रो. कलबुर्गी, सामाजिक विचारक औऱ लेखक गोविन्द पानसरे औऱ, महाराष्ट्र के प्रगतिशील वामपंथी लेखक, औऱ अन्धविश्वास के विरुद्ध बिगुल फूंकने वाले डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या…दर्शाने को प्रयाप्त हैं की इस देश में कट्टरपंथी ताकतें…हिंसा का रास्ता अख्तियार कर चुकी हैं! …हालाँकि आज यह प्रश्न उन साहित्यकारों से भी पूछना चाहिए …हमारे समाज का बुद्धिजीवी वर्ग भविषय की आहट को पहचानने में चूंक क्यों गया? जो आवाजें आज …प्रो कलबुर्गी की मौत के पश्चात उठी हैं, …जब नरेंद्र दाभोलकर को दिन-दहाड़े गोली मारी गयी ..उस समय ये आवाजें कहाँ गुम-शुम पड़ी हुई थी ?..क्या समाज को जागृत करने वाला हमारा साहित्य जगत…खुद अब तक सोया हुआ था? …युवा कलमकार होते हुए भी, मुझे अफ़सोस है कि…अगर हम उस वक्त जग गए होते,..जब हमने नरेंद्र दाभोलकर औऱ गोविन्द पानसरे कि चिता जलायी थी…क्या पता शायद आज प्रो. साहब हमारे बीच होते ! पिछले दिनों एक औऱ कन्नड़ लेखक …प्रो. भगवान को जान से मारने कि धमकी दी गयी! …हालात को लेकर साहित्यकारों का वर्तमान विरोध देर से हैं, लेकिन सही हैं! ‘भारत’ भारतीय संविधान कि अनुसार चलना चाहिए…न कि किसी व्यक्ति या संगठन के विचारों के आधार पर ! भारतीय संविधान इस देश के हर नागरिक को अपनी सोच औऱ विचारों के अनुसार जीवन गुजारने कि पूरी आज़ादी देता हैं, हर व्यक्ति को अपने विचारों को प्रकट करने का अधिकार देता हैं…अगर आप किसी के विचारों से सहमत नहीं हैं, आप अपना तथ्य रख सकते हैं …लेकिन आज जिनके पास तथ्य नहीं हैं, जिनके पास कहने को कुछ जवाब नहीं …वे हिंसा का मार्ग पकड़ रहे हैं…कलम की आवाज दबाने के लिए बंदूकों का सहारा लिया जा रहा है … वास्तव में यह भारतीय लोकतान्त्रिक मूल्यों कि हत्या हैं !
भारी जनसमर्थन के पश्चात माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में पिछले वर्ष भाजपा सत्ता में आसीन हुई ! लोगों ने बड़ी -बड़ी उमीदें लगायी थी…विकास तो दूर, आज उस सरकार पर बड़ा प्रश्नचिन्ह हैं…जो सरकार अपने नागरिको कि रक्षा नहीं कर सकती हैं, जो अपने नागरिकों के सामान्य मौलिक अधिकारों कि रक्षा करने में सक्षम नहीं…जिसके शासन में ,…बन्दुक के दम पर साहित्यकारों,लेखकों, कवियों कि आवाज दबाने कि कोशिस हो …लोगों कि वैचारिक आज़ादी को छिनने का प्रयास हो….वह सरकार क्या सच में इस राष्ट्र के लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ विकास कर सकती हैं! मुझे बेहद संशय हैं, क्योंकि विकास कि प्रथम आवश्यकता शांति हैं,…हिंसा औऱ आशांति के साथ विकास का कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता हैं! ऐसा नहीं है कि पहले कि सरकारों में स्थिति ज्यादा बेहतर थी…लेकिन कहीं न कहीं हालात औऱ परिस्थितियां इशारा करती हैं…इस सरकार के कार्यकाल में स्थिति बदतर हुई हैं!…समझना मुश्किल नहीं कि लोकतंत्र विरोधी कट्टरपंथी ताकतें इस सरकार में अपने आप को ज्यादा बेहतर स्थिति में पा रही है! भारत जैसे राष्ट्र में जहाँ विभिन्न भाषा, संस्कृति औऱ एवं वैचारिक मूल्यों को मानने वाले लोग एक साथ रहते आये हैं ! जीवनशैली में भिन्नताओं के बावजूद हमने एक सामाजिक संरचना बनायीं..जिसमे सभी को एक-दूसरे का सहयोग व् साथ मिल सके! वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद हमने …सभी के विचारों को सम्मान करने औऱ अपने विचारों के साथ जीवन गुजारने का काम किया …आज वास्तव में बड़ा आश्चर्य होता हैं कि…गांधी के देश को किस कि नजर लग गयी…शायद अपनों कि नजर में ही कुछ कमी हैं!
उपजे हालत के बीच सबसे अफसोसजनक स्थिति हैं, वर्तमान केंद्र सरकार का गैर जिम्मेदरानापन व्यव्हार ! भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी हैं, जब भी समाज या सत्ता पथभ्रष्ट हुई हैं, अपनी राह से भटकी हैं…साहित्कारों और बुद्धिजीवियों ने आवाज उठाया हैं…लेकिन जिस प्रकार का दुर्वव्यहार बदले कि भावना से इस बार हुआ हैं, यह अपने आप में इस सरकार कि कार्यशैली कि गलत मिशाल पेश करता हैं! मुझे नहीं लगता कि किसी साहित्यकार ने सत्ता को चुनौती दी थी, साहित्यकारों का विरोध समाज में बन रहे हालात को लेकर हैं…हाँ, देश और समाज में व्याप्त हालात के लिए हमेशा सत्ता पक्ष को ही जिम्मेदार मन जाता हैं, और एक जिम्मेदार सरकार को इससे कि जरुरत नहीं होती हैं ! लेकिन बेहद गन्दी साजिस के तहत …देश के बड़े साहित्यकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के इस विरोध को ‘राजनैतिक’ पहचान देकर अनसुना करने का कार्य सत्ताधारी दल और सरकार के बड़े मंत्रियों के द्वारा किया गया ! देश के सम्मानित बुद्धिजीवियों के प्रति यह षड्यंत्र …कहीं न कहीं इस सरकार नियत और निष्ठां पर बड़ा प्रश्चिन्ह खड़ा करता हैं! प्रथम दृष्टया किसी भी सरकार को साहित्यकारों कि भावनाओं का सम्मान करना चाहिए! ‘साहित्य’ किसी धर्म या विचारधारा के दायरे में परिभाषित नहीं किया जा सकता हैं…साहित्य वह सागर हैं जिसमे सभी स्वस्थ वैचारिक धाराओं के लिए जगह हैं …लेकिन हम किसी एक धारा को सागर कि पहचान नहीं बना सकते है…औऱ ऐसा करना /होना साहित्य को सिमित करने वाला कार्य हैं ! धार्मिक साहित्य…साहित्य का एक अंग हो सकता हैं…सम्पूर्ण साहित्य नहीं ! धर्म कि वैचारिक संकीर्णताओं में साहित्य को समायोजित करने का सरकारी प्रयास कहीं से भी उचित नहीं हैं! हो सकता है ..’मूल्यों’ कि चाहत में ‘मूल्य’ बेच खाने वाले कुछ लेखकों को सरकार के इशारों पर कलम चलाना रास आता हो…लेकिन कलम औऱ कलमकार के विचारों को गुलाम बनाने कि ताकत तो ब्रिटिश हुकूमत में भी नहीं थी ! ..पिछले दिनों एक औऱ वाकया हुआ…जब फेसबुक पर सरकार द्वारा नियंत्रण कि कोशिस कि गयी…हालाँकि २४ घंटे में भारी जनदबाव के पश्चात सरकार ने फैसला अपना वापस ले लिया ! ठीक इसी तरह महाराष्ट्र शासन के द्वारा यह निर्देश दिया गया कि…राजनेताओं पर टिपड्डी देशद्रोह माना जायेगा….जिसे बाद में मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश से निरस्त किया गया ! प्रश्न अहम हैं कि …आज भले ही जुबान पर तालेबंदी कि साजिशें सफल न हुई हों…. अहम तो यह हैं कि…कोशिशें हो तो रही हैं,… प्रयास जारी तो हैं !
वास्तव में आज इस देश के सामने अपने लोकतान्त्रिक अस्तित्व को बचाने का प्रश्न आ खड़ा हुआ हैं…सत्ता ही संविधान कि अवहेलना करने पर उतारू हैं…विरोध करने वालों के साथ दमनपूर्ण नीति अपनायी जा रही हैं! ..समाज में जान-बूझकर अपनी राजनीति चमकाने के उदेश्य से कट्टपंथियों को हवा देकर ….वैचारिक वैमनुष्यता फ़ैलाने का कार्य किया जा रहा हैं! …आज साहित्यकारों ने जो आवाज उठाई हैं, यह सिर्फ साहित्य अकादमी का विरोध नहीं हैं..समाज में व्याप्त हालात के प्रति सरकार कि चुप्पी और असंवेदनशील हरकतों का भी विरोध हैं ! आज हर जगह एक विशेष विचारधारा औऱ धार्मिक चिंतन कि पृष्टभूमि से आने वाले लेखकों औऱ शिक्षाविदों को जहाँ सम्मान दिया जा रहा हैं…बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों में नियुक्त किया जा रहा हैं…वहीँ बड़े-बड़े विद्वानो को सिर्फ वैचारिक भिन्नता कि वजह से तिरस्कृत करने का काम भी किया जा रहा हैं! नोबेल पुरुस्कार विजेता महान अर्थशास्त्री प्रो.अमर्त्यसेन …इस देश का गौरव हैं,…आज देश लगातार आर्थिक बदहाली से त्रस्त हो रहा हैं…ऐसे विशेषज्ञों से सलाह लेना चाहिए था…लेकिन दुर्भावनावश सलाह लेना तो दूर, बेइज्जत करके नालंदा यूनिवर्सिटी के चांसलर के पड़ से हटा दिया गया ! अहम हैं क्या हम इस देश को दुनिया कि उन चंद मुस्लिम राष्ट्रों के कट्टरपंथी मॉडल में ले जा रहे हैं? …जहाँ विरोधियों के सर धड़ से अलग करना.भी राष्ट्रवाद माना जाता हैं! जहाँ का साहित्य चिंतन ..धार्मिक सुमिरन का रूप बन गया हैं! जहाँ आज़ादी के मायने भी वैचारिक पैमानों पर तय होते हैं!
आज हमें खुद को सौभाग्यशाली समझना होगा कि…हमने गांधी औऱ बुद्ध के देश में जन्म लिया हैं…जिन्होंने सत्य औऱ अहिंसा का मार्ग दिखाया ! जरा इतिहास को याद करें…जब अंग्रेजों ने हिन्दू औऱ मुसलमानो को एक साथ आज़ादी के आंदोलन में लड़ते देखा…उन्होंने मानवता के दो वैचारिक पहचानों के बीच फुट डालने कि नियत से अलग राष्ट्र का षड्यंत्र रचा था ! वास्तव में यह उनकी साजिस थी…धर्म के नाम पर दोनों देशों को बाँट कर …कट्टरपंथ कि नींव डाल दिया गया ! वे जाते-जाते भी भारत औऱ पाकिस्तान कि बरबादी का पूर्ण इंतजाम कर के गए थे…लेकिन हम शुक्रगुजार हैं अपने उन महापुरुषों का जिन्होंने अंग्रेजों कि चाल नाकामयाब कर दी! दूसरी तरफ पाकिस्तान उनकी चाल को समझ नहीं पाया… परिणाम सामने है..हम कहाँ हैं औऱ वे कहाँ हैं! …आज आज़ादी के लगभग ६८ वर्षों के पश्चात …अपनी कारगुजारियों से अंग्रेजों कि उस चाल को सही साबित करने का जो प्रयास हम कर रहे हैं..हमें खुद पर शर्म कि आवश्यकता हैं! वास्तव में यह शर्मनाक हैं महात्मा गांधी के सपनों का भारत बनाना तो दूर हमने … अपने कृत्यों से अपनी सभ्यता-संस्कृति औऱ सस्कारों का गलत उदहारण पेश किया हैं.!..’अतिथि देवो भवः’ कि यह संस्कारपूर्ण भूमि …आज एक संगीत के साधक को …एक दिवंगत कलाकार कि याद में कला प्रस्तुत करने सिर्फ इसलिए रोकने के लिए चर्चित होती हैं..क्योंकि वह कलाकार एक पाकिस्तानी हैं ! कला औऱ साहित्य किसी सीमा कि गुलामी नहीं कर सकते हैं…गुलाम अली साहब का नाम ‘गुलाम’ हैं लेकिन उनकी आवाज औऱ काम किसी के गुलाम नहीं हैं! उनका परिचय उनकी कला हैं ! हमें सोचना होगा, क्या हम पाकिस्तान का अनुशरण कर रहे हैं? …अगर हाँ, वाकया याद करें …श्री लंका क्रिकेट टीम पर एक हमले में पुरे पाकिस्तान को क्रिकेट जगत में अलग-थलग कर दिया हैं! वर्षों बीत गए …आज भी पाकिस्तान बड़े देशों के पैरों पर पड़ा हैं…फिर भी कोई देश वहां क्रिकेट खेलने जाने को राजी नहीं हैं! बात सिर्फ क्रिकेट कि नहीं…आज ग्लोबल मार्केटिंग के दौर में संकीर्ण मानसिकता वाली सोच के साथ …हम भारत को पाकिस्तान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, जैसे देशों कि शक्ल दे सकते हैं, लेकिन ..दुनिया का कोई कट्टरपंथी राष्ट्र …अमेरिका, जापान औऱ चीन, रूस जैसी वैश्विक महाशक्ति कभी नहीं बन सकता हैं! …वास्तव में आज अपने देश में व्याप्त हालात ह्रदय को व्यथित करते हैं, एक पीड़ा होती हैं…व्यथित ह्रदय से एक ही आवाज बार- बार निकलती हैं…”बापू …हमें माफ़ कर दो …भटक गए तेरी राहों से” !
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