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मोदी नहीं तो कौन?

YOUNG INDIAN WARRIORS
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यह सही है कि हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था ऐसी है, जहां प्रधानमंत्री पद ही मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। बावजूद इसके भारतीय राजनीति पर जो प्रभाव पिछले २-३ वर्षों में नरेंद्र मोदी का देखने को मिला है, वह सिर्फ एक लोकतान्त्रिक पद का आकर्षण नहीं हो सकता। आज आप भारतीय राजनीति के धरातल पर सत्ता के पक्ष में हों या विपक्ष में, आपका राजनीतिक चिंतन ‘मोदी’ से इतर नहीं हो सकता।

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लोग चाहे इसे दलगत और सांगठनिक आधार पर विचारधारा कि लड़ाई का नाम दें, लेकिन हकीकत यही है कि आज इस देश में राजनीति कि बयार सिर्फ नरेंद्र मोदी के समर्थन या विरोध में बह रही है। इस राजनीतिक संघर्ष में एक तरफ नरेंद्र मोदी के समर्थकों का हुजूम है, जो पूरी एकजुटता के साथ नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा है। दूसरी तरफ मोदी के विरोध में करोड़ों नेतृत्व विहीन और खंडित लोगों का जनसमूह है। सच तो यह भी है कि संख्याबल के दृष्टिकोण से विरोध का स्वर कहीं ज्यादा मुखर प्रतीत होता है।

लोग हर स्तर से वर्तमान केंद्र सरकार के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद कर रहे हैं, लेकिन इस विभिन्न विरोध-प्रतिरोध कि चर्चाओं के बीच जैसे ही यह सवाल सामने आता है कि मोदी नहीं तो कौन? हर बुलंद आवाज गुम सी होती नजर आती है। हर आंदोलित चेहरा खोया-खोया सा नजर आने लगता है। ऐसा क्यों है? विपक्ष के अनुसार अगर नरेंद्र मोदी गलत हैं, तो फिर सही कौन है?

आज विपक्ष जिस प्रकार से मोदी के ऊपर हमलावर होता है। उनकी कमियों-खामियों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करता है। समझने कि आवश्यकता है कि बात सिर्फ हमले करने और नरेंद्र मोदी कि कमियों को उजागर करने से नहीं बनने वाली। विपक्षी दलों को नेतृत्व के नाम पर मुंह चुराने की आदत से बाज आना होगा। अगर आप किसी को गलत साबित करते हैं, किसी को लेकर जनता के मन में भ्रम पैदा कर रहे हैं, तो आपकी यह जिम्मेदारी है कि अपने दृष्टिकोण से सही व्यक्ति को भी जनता के बीच रखें।

अगर लोकसभा चुनाव- २०१४ को ही समझ सकें, तो मनमोहन सिंह के विरोध में न सिर्फ भाजपा ने जमकर राजनीतिक हमले किये थे, बल्कि नरेंद्र मोदी के रूप में एक मजबूत सरकार का विकल्प भी पेश किया था। इसके बाद चुनाव परिणाम वर्तमान मुख्य विपक्ष से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। इसी प्रकार आज सभी विपक्षी दलों को नरेंद्र मोदी के ऊपर हमले में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को व्यय करने की जगह, मोदी के विरुद्ध एक चेहरा खड़ा करने पर भी थोड़ी ऊर्जा लगानी चाहिए। यह न सिर्फ विपक्षी दलों की राजनीति में मददगार होगा, बल्कि लोकतंत्र की मुख्य अवधारणा को संरक्षित करने वाला कार्य होगा। क्योंकि एक मजबूत लोकतंत्र की मजबूती इस बात में अन्तर्निहित होती है कि एक सशक्त सत्ता के सापेक्ष में एक मजबूत विपक्ष हो।

वस्तुतः २०१४ में सत्ता के परिवर्तन के बाद से अब तक विपक्षी दलों की स्थिति को समझने का प्रयत्न करें, तो नेतृत्व को लेकर बगले झांकने की प्रवृत्ति का सहज ही अंदाजा हो जाता है। यह सही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता पक्ष लगातार मजबूत होता चला जा रहा है और आज उस स्थिति में है, जहां उसे राष्ट्रपति के चुनाव में अपने मनचाहे उम्मीदवार को विजयश्री दिलाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ रही। बावजूद इसके मोदी विरोधी दलों के पास कोई बड़ा नेता नहीं है या कोई चेहरा नहीं है, यह कहना भी अनुचित होगा।

इस दौरान विभिन्न राजनीतिक व्यक्तित्वों को लेकर चर्चाएं चली और बिना किसी परिणाम के समाप्त भी हो गयी। अगर हम बात करें देश की सत्ता पर सर्वाधिक समय तक विराजमान रहने वाली कांग्रेस की, तो कांग्रेस राहुल गाँधी से आगे बढ़ने को तैयार नहीं है और राहुल गांधी ‘नए-नवेले युवानेता’ से आगे बढ़ने को तैयार नहीं हैं। स्थिति कब तक सेटल होगी कहना मुश्किल हैं। हालांकि भाजपा की मनोकामना होगी कि आगामी लोकसभा चुनाव ‘मोदी बनाम राहुल/कांग्रेस’ ही हो।

दूसरा नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है, जिसे लेकर मीडिया में काफी चर्चाएं चलती रहती हैं। अगर नीतीश कुमार की राजनीतिक कार्यशैली, अनुभव, व्यव्हार, कार्यकुशलता और बिहार में मोदी के खिलाफ सफलता को मद्देनजर रखें, तो निःसंदेह एक मजबूत चेहरा बनता प्रतीत होता है। मगर इससे पहले कि कोई प्रयास होता, नीतीश कुमार ने खुद ही अपने आपको इस दौड़ से बाहर कर लिया।

नीतीश कुमार की तरह ही ‘मोदी एन्ड कंपनी’ को पश्चिम बंगाल में परास्त करने वाली आक्रामक और अनुभवी ममता बनर्जी का नाम भी, कुछ समय पहले तक चर्चा में था, लेकिन उन्होंने भी बंगाल से बाहर निकलने की बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया। इसके अलावा उड़ीसा के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी खुद को इस दौड़ से बाहर कर चुके हैं और उनकी राजनीति को समझने वाले इस बात पर यकीन भी रखते हैं। देश के सबसे बड़े प्रदेश से सपा-बसपा आज सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाने की जुगत में हैं, इससे आगे सोचना जायज भी नहीं है। महाराष्ट्र में शरद पवार, दिल्ली में केजरीवाल, तमिलनाडु में करुणानिधि जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप तो इस दौड़ में हैं ही नहीं।

कुल मिलाकर विपक्ष के लिए मोदी के सामानांतर एक सशक्त चेहरा ढूंढना काफी मुश्किल भरा है। चेहरे तो हैं, लेकिन अपनी-अपनी समझदारी से खेल रहे हैं। शायद इसके लिए जरूरी एकजुटता का अभाव भी प्रकट होता है। जो भी हो, जैसे भी हो, इस देश की राजनीति को एक स्पष्ट दिशा देने के लिए विपक्षी दलों को एक नाम-एक चेहरा सामने लाना ही होगा। जनता को स्पष्ट बताना होगा कि मोदी नहीं तो कौन? अगर विपक्ष ऐसा नहीं कर पता है, तो मोदी विरोधी खबरें सिर्फ अच्छा व्यूज, लाइक्स और कॉमेंट्स जुटा सकती हैं, वोट नहीं।

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