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अगर हम भारतीय लोकतंत्र के अब तक के सफर को समझने का प्रयत्न करें, तो इस बेहद छोटे से कालखंड में ही विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा हैं और बदलते दौर के साथ ये चुनौतियां मुश्किल होती चली जा रही हैं। मुख्यरूप से जब भी हम भारतीय लोकतंत्र में व्यक्तिवाद की चुनौतियों को समझने का प्रयत्न करते हैं, लगता है जैसे इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। अगर हम याद कर सकें ७०-८० का वह दशक जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में ‘इन्डिया इज इंदिरा’ एन्ड ‘इंदिरा इज इण्डिया’ की राय लोगों में बनाने की कोशिश की गयी थी। लोगों के मन-मस्तिष्क में यह धारणा स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि ‘इंदिरा के बिना, राष्ट्र कल्पनाहीन हैं’।
दुर्भाग्य से आज भी भारतीय जनमानस में कुछ ऐसी ही राय स्थापित करने का प्रयास ‘हम’ कर रहें हैं। यहाँ ‘हम’ से तात्पर्य हम आम लोगों से है, हम युवाओं से है जो कल इंदिरा गांधी कि भक्ति में लीन थे और आज मोदी भक्ति में लीन हैं। निःसदेह इंदिरा गांधी और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री अब तक के सर्वाधिक प्रभावशाली और लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं, लेकिन इस तरह की राय उनके विचारों और कार्यक्रमों का कभी हिस्सा नहीं रहे हैं।
वास्तव में हमारी लोकतान्त्रिक समझ संदेहास्पद हो जाती है, जब हम इस तरह से राजनीतिक व्यक्तित्वों के प्रभाव से राष्ट्र की तुलना करने लगते हैं, जब हम इंदिरा गाँधी को इण्डिया के समतुल्य और मोदी भक्ति को राष्ट्रभक्ति का पैमाना मान लेते हैं। मुझे बेहद पीड़ा के साथ यह बात कहनी पड़ रही है कि आज हमने सिर्फ एक राजनीतिक शख्िसयत की ब्रांडिंग के चक्कर में ‘राष्ट्रभक्ति’ के नए पैमाने तय कर लिए हैं। उस पैमाने के अनुसार, आज जो माननीय प्रधानमंत्री जी के विचारों, कार्यशैली एवं शासन से असहमत है, जिसे वर्तमान सरकार में कोई कमी दिखाई देती है, हम उसे तुरंत एक सुनियोजित माध्यम से ‘राष्ट्रविरोधी’ साबित कर देते हैं। यह क्या हैं? हम कैसा लोकतंत्र स्थापित करना चाहते हैं? हम कैसे राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं? हमें, विशेषकर हम युवाओं को आत्मचिंतन कि आवश्यकता है।
हम एक ऐसे राष्ट्र के निवासी हैं, जिसकी पूरी बुनियाद लोकतान्त्रिक है। इस राष्ट्र को समझने के लिए, लोकतंत्र को समझना बेहद आवश्यक है। यहाँ हमें एक बात गहराई से समझने की आवश्यकता है कि दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में भक्ति/उपासना/पूजा के लिए कोई जगह नहीं है, अपितु ये सभी लोकतंत्र के लिए विष के सामान हैं। जैसा कि हम जानते हैं, हमारा लोकतंत्र मुख्यतः दो खण्डों में विभाजित है। १. ‘लोक’ अर्थात जनता और २. ‘तंत्र’ अर्थात व्यवस्था।
यहाँ ‘लोक’ ही ‘तंत्र’ का जन्मदाता है। वास्तव में हमारी लोकतान्त्रिक पद्धति में ‘लोक’ अर्थात हम आम जनता ही तंत्र (व्यवस्था) के चयनकर्ता हैं। इस देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर किसी गांव के किसी वार्ड के निर्वाचित सदस्य के चयन के लिए भी हम प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं। अब सवाल बेहद अहम है कि क्या किसी चयनकर्ता को अपने चयनित इकाई या व्यक्ति कि भक्ति/उपासना/पूजा करनी चाहिए? क्या एक चयनकर्ता के रूप में राजनीतिक व्यक्तित्वों की ब्रांडिंग करना हमारे लोकतान्त्रिक कर्तव्यों के अनुसार है? हम कल्पना करें कि कल भारतीय क्रिकेट टीम की चयन समिति किसी क्रिकेट खिलाड़ी का चयन करे और फिर खुद उसकी पूजा में लीन हो जाए। उसे खेल से भी बड़ा घोषित कर दे, क्या यह उसके कर्तव्यों के अनुरूप होगा?
अगर हम तनिक भी भारतीय लोकतंत्र को समझते हैं, तो उपरोक्त सभी प्रश्नों का जवाब ‘नहीं’ ही होगा। क्योंकि एक चयनकर्ता के रूप में अपने द्वारा चयनित इकाई/व्यक्ति की पूजा, उसकी ब्रांडिंग हमारी लोकतान्त्रिक जिम्मेदारियों के विरुद्ध है। अपितु चयनित इकाई/व्यक्ति की हर गतिविधि का अवलोकन करना, उसके हर क्रिया-कलाप का लेखा-जोखा रखना और पांच वर्ष के पश्चात उसका हिसाब करके पुनः अपना निर्णय वोट के माध्यम से सुनाना ही हमारी मूल जिम्मेदारी है, जिससे हम पूर्णतः भटक गए हैं | स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि हम ‘लोक बनाम तंत्र’ के इस विमर्श में कहाँ खड़े हैं, क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं? हमें खुद ही नहीं पता है।
मैं स्वयं एक युवा हूँ और आज जिन प्रश्नों को लेकर हम चिंतित हैं, उसके लिए भी जिम्मेदार हम युवा ही हैं। जब भी मैं भारतीय राजनीति में युवाओं की स्थिति को समझने का प्रयास करता हूं दुर्भाग्य कि हम सिर्फ और सिर्फ नारे लगाने वाली भीड़ बनकर रह गए हैं। अब तो यह भीड़ भेड़-चाल में तब्दील हो चुकी है। कल तक कभी-कभार हम बेरोजगारी, बेहतर शिक्षा व्यवस्था, दहेज़ प्रथा, जातिवाद, अन्धविश्वास पर बात करते थे, लेकिन आज हमने गौ-हत्या, कश्मीर, घर वापसी जैसे जिम्मे उठा लिए हैं। नेताओं और राजनीतिक दलों की ब्रांडिंग और उनके कार्यक्रमों के प्रचार के जिम्मे उठा लिए हैं। उनके बदले में उनके राजनीतिक/वैचारिक विरोधियों पर हमले का ठेका ले लिया है। हमें तो यह अहसास भी नहीं होता कि इन विवादों का ठेका हमें कब मिल गया। सोशल मीडिया के दौर में सब कुछ बिना आगे-पीछे सोचे समझे आगे बढ़ता चला जा रहा है। हम तो यह भी भूल जाते हैं कि अगर किसी गौ-हत्या के सम्बन्ध में गैर-क़ानूनी हो रहा है, तो हमने इस देश में एक सरकार भी चुनी थी, जिसके पास पुलिस भी है और कानून भी है, जिस पर लाखों करोड़ खर्च भी होता है।
बेहद दुखद है कि आज बड़े-बड़े शैक्षणिक संस्थाओं से बड़ी-बड़ी डिग्रियों के मालिक भी सोशल मीडिया के इस भयानक संक्रमण से ग्रसित हो गए हैं। विचार की जगह सिर्फ प्रचार हो रहा है। थिंकिंग की अपेक्षा सिर्फ लिंकिंग हो रही है। अपनी कोई सोच है न समझ है, सिर्फ अफवाहों की आंधी है। इस देश का एक मतदाता, एक आम नागरिक अपनी सरकार से कुछ सवाल करता है, तो सभी लोकतान्त्रिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाते हुए, उसे राष्ट्रविरोधी साबित कर देते हैं।
आम नागरिक की बात भी कौन करे, हम इस देश के उपराष्ट्रपति कि धज्जियाँ उड़ा देते हैं, क्योंकि वह अपनी सरकार को कुछ हिदायत, कुछ संकेत देने का प्रयास कर रहा है। उसे पाकिस्तानी एजेंट, आतंकी एजेंट और न जाने क्या-क्या चंद मिनटों में ही साबित कर देते हैं। इसके लिए ऐसे-ऐसे रिसर्च पोस्ट सामने आते हैं, जो इस देश की शांति और एकता की हमारी विरासत में आग लगाने को काफी हैं। दुर्भाग्य से इस देश में आग लगाने की ऐसी सैकड़ों कोशिशें प्रतिदिन हो रही हैं और हम बदहवाश ‘युवा’ उसका जरिया हैं। अर्थात जिनके कन्धों पर राष्ट्रनिर्माण का जिम्मा था, वे अब कुछ राजनीतिक दलों/व्यक्तियों का स्वार्थ ढोने लगे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है की इस देश में आज धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर स्तर पर ‘वैचारिक उग्रवाद’ फैलाने की साजिश हो रही है और हम युवा इसकी चपेट में सर्वाधिक हैं। इस साजिश को समझना बेहद आवश्यक है।
हमें चिंतन करना होगा कि कैसे १३० करोड़ भारतीयों की राष्ट्रीयता एक व्यक्तित्व में परिभाषित हो सकती हैं? नरेंद्र मोदी जी मेरे भी बेहद पसंदीदा राजनेताओं में से हैं, लेकिन वे मेरी राष्ट्रीयता की सीमा नहीं हो सकते हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद पर मैंने भी चयनित किया है, इस नाते उनके क्रायक्रमों, उनकी शासन व्यवस्था और व्याप्त हालात पर बात करना मेरा लोकतान्त्रिक अधिकार है। इसके लिए मुझे किसी भी राष्ट्रवाद की चिंता नहीं है।
सरकार के काम-काज को लेकर हमारे बीच असहमति हो सकती हैं, जो कार्यक्रम आपको अच्छा लगता है, किसी को बुरा लग सकता है, लेकिन यह ‘असहमति’ ही हमारे लोकतंत्र की जान है। इस तरह मोदी भक्ति को देशभक्ति के तराजू पर तौलना और मोदी विरोध को राष्ट्रविरोध बताने की साजिश जितनी जल्दी बंद हो सके, हमारे राष्ट्र और लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा।
इंदिरा गांधी के दौर में जब लोकतंत्र के ऊपर व्यक्ति पूजा हावी हो गई थी, तब लोकतंत्र ने अपनी ताकत दिखाई थी। अगर आज चीजें नियंत्रण में न हुईं, तो लोकतंत्र पुनः अपना रूप दिखायेगा और इसके लिए प्रिय मोदी जी नहीं, सिर्फ और सिर्फ उनके अंधभक्त जिम्मेदार होंगे। एक बार पुनः दुर्भाग्य की मैं अपने युवामित्रों को अंधभक्त कह रहा हूँ, क्योंकि जरूरत है हमें खुद को झकझोरने की। यह देश आज तक धार्मिक अंधभक्ति की कैद में है और अब राजनीतिक अंधभक्ति। निश्चय ही इस देश का भविष्य अंधकारमय है।
जिस प्रकार शेक्सपियर सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हो सकते हैं, लेकिन साहित्य की सीमा नहीं हो सकते हैं, जिस प्रकार सचिन तेंदुलकर सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटर हो सकते हैं, लेकिन क्रिकेट की सिमा नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार माननीय मोदी जी भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन भारतीयता की सीमा नहीं हो सकते हैं। मोदी भक्ति को राष्ट्रभक्ति बिलकुल ही नहीं माना जा सकता है। इस विषय पर हम युवाओं को लोकतान्त्रिक रूप से सचेत होने की आवश्यकता है, क्योंकि यह देश हज़ारों वर्षों पुराना है। हमारी राष्ट्रीयता हज़ारों वर्षों की विरासत है, उसे यूँ ही किसी व्यक्ति विशेष से तुलना करना, अपने आप में सबसे बड़ा राष्ट्रविरोधी कृत्य है।
मुझे विश्वास है कि आज हम सभी के मन-मस्तिष्क पर कुछ महान शख्सियतों के विचारों का प्रभाव हावी है। ऐसे में अपना विचार, अपनी शख्सियत दब सी गयी है। भारत वैसे भी सदियों से अनुयायियों और प्रचारकों का ही देश रहा है। हर स्थिति को खुद की सोच और समझ से देखना हम अपनी शिक्षा का अपव्यय समझते हैं। हम आईआईटी से निकलकर भी दूसरों के अनुसंधान पर काम करने में महारत रखते हैं और आईआईएम से निकलकर दूसरों द्वारा प्रबंधित होने की कला भी बखूबी जानते हैं। मतलब इस ‘पैक्ड/तालाबंद’ मस्तिष्क को झकझोरना, सोये हुए सर्प को जगाने के जितना मुश्किल है, लेकिन कोशिशें अवश्य होनी चाहिए |
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